इश्क़
इश्क़
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इश्क,,
अनगढ़ सा वो नाम है
जो लिखा तो गया कागज़ पर
पर इस नीयत से कि
किसी को नज़र ना आए...
जो दिल के आंगन में उग तो आया
बेशर्म के उस पेड़ सा
जिसकी खूबसूरती और खुशबू को
महसूस कर सकती हूं सिर्फ मैं ही...
ये कभी महकता है लंचबॉक्स में
तो कभी खिलता है गुलदान में..
कभी मिलता है
बिस्तर पर बिखरे गीले तौलिए में..
तो कभी मुस्कुराता है
बेतरतीब बिखरी किताबों में..
और कभी कभी
सिमट आता है
आंखो की कोरों में
हिमकणों सा..
तो कभी जम जाता है
दिल की गहराइयों में
वीरान.. निर्जन..
रेगिस्तान सा.....!!
इश्क़..
कुछ अलबेला सा.
इश्क़.
कुछ अनजाना सा..