शैतान
शैतान
यहाँ सब अपने हर,
आने वाले कल का,
अनुमान लगाये बैठे है।
क्या हुआ ?
क्यूँ हुआ ?
कैसे हुआ ?
ये जानते हुए भी,
अपनी हर ग़लती का,
दूसरों पर इल्ज़ाम,
लगाये बैठे है।
फ़र्क़ नहीं पड़ता इन्हें,
अपनी गलतियों पर,
ये सब अपने ईमान,
भुलाए बैठे हैं।
अपनी बेईमानी पर परदे डाले,
ना जाने कितनी दीवाली और,
कितने रमज़ान मनाये बैठे है।
देख के फिर बेईमानी,
पहचान ना ले कोई,
शायद इसलिए,
कुछ दिनों के लिए अपने,
अरमान दबाये बैठे हैं।
ना जाने कैसे देखते हैं,
ख़ुद को आइने में,
शायद ख़ुद से ख़ुद की,
पहचान छिपाये बैठे हैं।
जल रही है इंसानियत,
सभी के दिलो में,
शायद सब अपने दिलों को,
शमशान बनाये बैठे हैं।
सिर झुकाते है,
मंदिर में ये भी,
पर शायद ख़ुद को,
भगवान बनाये बैठे हैं।
दिखाते है ख़ुद को,
भगवान लेकिन,
सब अपने भीतर,
शैतान दबाये बैठे हैं।