सच बताना
सच बताना
इक बात कहूँ
सच में अब तुम ख़ुश हो ना..?
बात बात पर ना कोई रोकता होगा
ना कोई डाँटने के लिए
ना समझने वाला कोई
ऐसा करो, वैसा ना करो
अरे..! ये क्या
समय पर ना उठ सकते हो
ना कोई काम कर सकते हो..?
मैं नहीं हूँ तो कौन चिढ़ता है तुमसे
और कौन चिढ़ाता है तुमको ..?
ना रोना ना हँसना
जो चाहो करते होगे
अब तो आनंद ही आनंद होगा
ना इंतजार करना किसी काल का
अब तो मौज़ ही मौज़ है.!
सच..!
कितनी मतलबी कितनी अभिमानी थी मैं है ना..!
केवल अपने लिए सोचती और जीती
पर अब और नहीं,
क्यूँ तुम किसी ग़ैर की सहो
क्या रिश्ता था हमारा..?
दूर की भी तो नहीं थी..!
बस तुम्हारे ख़ुशी के वास्ते जो नहीं करती थी
उसको भी स्वीकार कर लेती थी,
हर बात में तुम्हारा सिर गर्व से ऊपर रहे
यही सोचकर ख़ुद ही झुक जाती
पता नहीं क्यूँ..?
पर अपने से ज्यादा तुम्हारा ध्यान रहता..!
उफ़्फ़्फ़..!
अच्छा किया जो छोड़ दिया
इसी काबिल थी तो मिल गया सजा..।
ख़ैर..!
एक दिन तो ये होना ही था
सो हुआ, जाओ और ख़ुश रहो
मेरा क्या,
मैं तो....!!!!
पर हाँ..!
जब लगे मेरी ज़रूरत है
आ जाना
मैं कभी नाराज़ नहीं हो सकती तुमसे
क्या करूँ..?
ऐसी ही हूँ
सजा ख़ुद को दे लेती हूँ
और....!!!!