साथ हमसफ़र नहीं
साथ हमसफ़र नहीं
बारिश की तरह बह रहे अश्क हमारे,
आज यहाँ मोहब्बत किसी की हार बैठी है,
बादलों का भी है आखिर क्या ही कसूर इसमें,
जब ये ज़िन्दगी ही अपनी तो किस्मत की मारी है।।
ख़ामोश हो गई दिल की वो गलियाँ ,
जहाँ रंग इश्क़ का था बिखरा हुआ कभी,
मिलकर आख़िर क्यों बिछड़ जाते हैं इस कदर,
नसीब ही नहीं मोहब्बत की दुश्मन दुनिया सारी है।।
बेवफाई कर गई ये ज़िन्दगी हमारी,
बेवफा अपने हमसफर को क्या ही कहें,
उनकी मोहब्बत का नूर ना मिल सका हमें,
और ना उनका साथ ही, ये शक़ावत तो हमारी है।।
शुक्रिया तेरे अल्ताफ़ का ए ज़िन्दगी,
ख़्वाबों को तूने बीच मझधार ही डूबा दिया,
मुकम्मल होते-होते फना हो गए वो ख़्वाब सारे,
जिसके एक एक पन्ने पर लिखी कहानी हमारी है।।
बन कर गई ये मोहब्बत फ़साना ही,
मुहीब बन बैठा मोहब्बत का पूरा ज़माना,
मिटा दी गई इबारत-ए-इश्क भी क़िस्मत से ऐसे,
जैसे कभी बनी ही नहीं थी मोहब्बत की वो क्यारी है।।
ए ज़िंदगी बता ये कैसी तेरी अदावत,
जब छीनना ही था तो क्यों ख़्वाब दिखाया,
रास्ता तो दिया तूने पर साथ वो हमसफर नहीं,
जिसके बिना खाली-खाली इस दिल की गलियारी है।।