साज़ का चमन
साज़ का चमन
शहर शहर उजड़ गए
बाग मैं बसर नहीं
चारों ओर आग है
कहीं बची झील नहीं
उजड़ गए हैं घोंसले
उजड़े हुए हैं दिन कहीं
सफ़र तो खैर शुरू हुआ
पर कहीं शज़र नहीं
मासूम से परिंदों का
अब न वासता कहीं
कौन जिया कौन मरा
अब कोई खबर नहीं
दुबक गए पहाड़ भी
लूटी सी है नदी कहीं
ये कौन चित्रकार है
जिसने भरे न रंग अभी
शाम हैं रूकी- रूकी
दिन है बुझा कहीं
सहर तो रोज होती है
रात का पता नहीं
मंज़िलों की लाश ये
कर रही तलाश है
बेखबर सा हुस्न है
इश्क से जुदा कहीं
जहां बनाया या ख़ुदा
और तुने जुदा किया
साँस तो रूकी सी है
आह है जमीन हुई
लूट चुका जहां मेरा
अब कोई खुशी नहीं
राह तो कफ़न की है
ये साज़ का चमन नहीं
