साइकिल जिंदगी की !
साइकिल जिंदगी की !
बड़े प्यार से पूछ रही थी
इक दिन मुझसे मेरी ही खामोशी..
क्यों ऐसे चुपचाप हुआ मन ?
क्यों खामोशी का है साया ?
मन ही मन में खामोशी ने
किस्सा इक था मुझे सुनाया,
बड़े ही अरमानों से,
माँ-बाबा ने साइकिल
इक थी मुझे दिलायी।
ये साइकिल जिंदगी की है,
नाम ये देकर मुझे थमायी।
चलानी ये तुमको ही होगी,
मदद भले हम कर देंगे।
खुद ही जोर लगाना होगा,
संतुलन भी रखना होगा।
कोई सहारा साथ ना होगा,
गति भी तुमको तक ना होगा।
उड़ा के मन के गुब्बारे में
उड़ी चली फिर साइकिल पर,
ज़ोर पेडल पर देते-देते
मज़े लेती थी हर पथ पर...
यूँ ही गुज़रे साल कई,
मैं कभी नहीं खामोश रही।
चली जाती थी मेरे दम पर
साइकिल मेरी जिंदगी की।
मेरे दम पर !
समय की धारा ने क्या बोलो
कभी किसी को बख्शा है,
राह हमेशा समतल होगी
ऐसा तय नहीं होता है।
जीवन के पथरीले पथ पर,
जब साइकिल के चक्के घूमे,
माँ बाबा का साथ भी छूटा,
और चक्के भी पिचक गए।
दुनिया की इस भीड़ में देखो,
मैं ही मैं से बिछड़ गई।
उलझ गई मैं जीवन में
और साइकल कोने में हो गई खड़ी।
पूछा मैंने फिर ख़ामोशी से:
बता ज़रा क्या हुआ मुझे ?
आखिर क्यों खामोश हूँ मैं ?
कहाँ गया दम पैरों का,
क्यों अपाहिज सी हो गई हूँ मैं ?
साइकिल मेरी जिंदगी की,
अब क्यों नहीं मुझसे चलती है ?
उत्तर में खामोशी बोली:
ओ पगली, अरे ओ भोली !
अब भी तुझको लगता है कि
साइकिल तेरे दम से थी चली ?
फूंक (प्रेरणा) से चलती है रे साइकिल,
जो बाबा अक्सर भरते थे,
बाबा अब जो नहीं है तो
चक्कों में फूंक नहीं रहती,
साइकिल तेरी जिंदगी की,
फूंक से रही सदा चलती,
फुंक से रही सदा चलती.....।।