सपना
सपना
खुली नजर का मेरा ये सपना,
बना रही हूँ मैं इक घरौंदा..
जहाँ सुनाई दे रहे हो ताने
कोई भी अपना न मुझको माने।
ज़रा तो सोचो गुजर हो कैसे
उन महलों में मेरे अहम् की...
हैं तो बहुत घर मेरे जहाँ में,
बड़े जतन से जिन्हें सजाया...
पर ! किसी ने बोला तुम हो पराई,
तो किसी ने पूछा कहाँ से आई ?
इन ज़िल्लतों का बोझ है मन पर,
कुछ कर गुजरना है अपने दम पर...
कब तक रहूँगी मैं बोझ बनकर,
मैं क्यों नहीं सोचती हूँ हटकर..
पिता, पति, पुत्र और भाई,
सभी के घर में रही पराई
कभी कहीं घर मेरा भी होगा,
जहाँ सिर उठा कर मेरे सकूंगी..
खुली नजर का मेरा ये सपना,
बना रही हूँ मैं इक घरौंदा- इक घरौंदा...