रिश्ता
रिश्ता
कुछ न होकर भी, कुछ तो है,
आधा ही सही, पर सच तो है।
तुम अनजान मुझसे, मैं अनजान तुमसे,
पर फिर भी लगती है जान पहचान तुमसे।
तुम अपने नहीं, पर पराए भी नहीं लगते,
ये रिश्ता कैसा बंधा, जिसका इंतजार था तुम हो वही लगते।
तुम पर अटूट विश्वास तो नहीं,
पर अविश्वास भी तो नहीं।
पर न जाने क्यों, आँसू तुम्हारी आँखों से आते हैं,
और गाल मेरे भीग जाते हैं।
हँसाते तो नहीं, पर सुकून हो मेरे मन उदास का,
ये अनोखा रिश्ता, दूर होकर भी लगता है पास का।
ज़ंज़ीरों जैसे रिश्ते टूटते देखे हैं,
कितने ही जगजाहिर और कितने ही अनदेखे हैं।
कलावे जैसे धागे से बंधे हम, फँसे नहीं खोखले रिश्तों में,
एक दिन में नहीं, प्रीत निभाते हम किश्तों में।
ज़ंज़ीरों ने औरों को जबरन जकड़ा है,
ये आज़ाद रिश्ता हमारा, हमने धागे के सिरों को खुद ही पकड़ा है।