मत्स्यगंधा
मत्स्यगंधा
आज वही यमुना वही नीर वही तीर
वहीं बैठी थी वो लिए अपने हिये धीर !
दुग्ध धार ज्यों बह रहा था निर्मल नीर
कोमल देह सुरभित श्यामवर्ण शरीर !
फैली वन उपवन मादकता मधुमास की
सब थे मृग खग सब थे और थी वासवी !
आम्रवल्लियों से महक रहा था उपवन
इधर योजनगंधा बैठी लिए चितवन !
उफनती लहरियों का वह संगीत मधुमय
इधर उफन रहा था यौवन वासवी युववय !
यमुना लहरें भी उछाल उछाल देख रही थी
फेन अपना उसके तन पर फेंक रही थी !
भीगी पिण्डलियां भीगा वक्ष यौवन सारा
मदमस्त था वह यमुना का भी किनारा !
देख यौवन अनावृत उसका कोयल कूक रही
धधकती यौवन ज्वाला में जैसे घी फेंक रही !
देवलोक इंद्रलोक और यमलोक रहे सब देख
इधर कामदेव ने भी अपने सब शस्त्र दिए फेंक !
यक्ष गंधर्व किन्नर मानव सब बेसुध हो जाएँ
लगी होड़ सब में पल भर को रूप वो पा जाएँ !
ऊषा ज्योत्स्ना सा था कितना यौवन स्मित
भूल अपनी ही कस्तूरी गंध मृग कितना विस्मित !
कुसमित कुञ्ज में पुलकित पुष्प अलि प्रेमालिंगन
मधुकर भी मकरंद उत्सव में हुआ देखो संलग्न !
डोले सुना सुना कर गीत वो प्रेम राग के
पहुँच गया वो परवाना जलने निकट आग के !
मृग भी पहुँच गए गन्धाकर्षण में खिंचे हुए
मंद मुस्कान लिए अधर मधुरस सिंचे हुए !
सुरभित शीतल समीर बह रही थी मंद मंद
योजन दूर भी उपस्थिति कह रही थी वह गंध !
हाँ वही थी वह गंधवती मत्स्यगंधा गंधकाली
अधरों पर लिए बैठी थी जो मधुरस की प्याली !
चन्दन वन में जूही चमेली जैसे थी वो वसवी
किन्तु व्याकुल मन नहीं कोई तनिक पास भी !
कोमल बांहें फैला जैसे आलिंगन जादू जगाया
मन चितवन से व्याकुलता आलस को भगाया !
अब वो चंचल हिरणी सी तक रही चहूं ओर
जाग उठा था यौवन प्रलय अब घनघोर !
जो कस्तूरी गंध से महक रहा तन महका महका
निर्लज्ज हवा का झोंका भी यूँ डोले बहका बहका !
इधर योजनगंधा बैठी थी अपने ही ख्यालों में
उधर उलझ रह था मन शांतनु का सवालों में !
चहूँ और फैली कैसी ये मदहोशी है
कोई नहीं किन्तु बड़ी अजब खामोश है !
सारथी खींचो लगाम तुरंग की यहीं पर
उतरा नीचे , रखे पाँव उसने मही पर !
बोला कैसी विचित्र है यहाँ की यह माया
किसने कस्तूरी गंध से उपवन महकाया !
अमात्यवार ठहरो यहीं मैं अभी आता हूँ
खोजने यह गंध स्रोत , मैं अब जाता हूँ !
खिंचा चला गया बह रही नीर यमुना धार
ज्ञात न हुआ तनिक आ गया था योजन पार !
यहाँ यह अश्व कैसे हिनहिनाया है
लगता है अजनबी कोई यहाँ आया है !
मंत्रमुग्ध सा एक राज पुरुष वहाँ खड़ा था
राजसी परिधान शीश मुकुट हीरों जड़ा था !
देख अजनबी को हाथों से वक्ष छुपाया
वो मंद मुस्काया और शांतनु नाम बताया !
कुरुवंश का वह कुलदीपक राजमुकुट सिर पर
फैला था उजियारा बदली हटी ज्यों बिखर कर !
कौन हो देवी ? तुम किस घर जाई हो
अप्सरी कोई देवलोक छोड़ इधर आई हो !
हे राजपुरुष मैं निषाथ कन्या नौका चलाती हूँ
तनिक ठहरो मैं अपनी पतवार लिए आती हूँ !
आज स्वर्ण मुद्राएं मिलेंगी विशेष
भगवन आये हैं यहाँ राजपुरुष भेष !
तनिक ठहरो देवी जी भर देख तो लूँ मैं
जी करता अब शेष जीवन यहीं जी लूँ मैं !
सकुचाई मृगनयनी वो चली कुलांचे भरती
देख रहा था ये गगन , देख रही थी धरती !
आई वो गजगामिनी सी लिए हाथ पतवार
बिठा राजन को , नाव ले चली मझधार !!