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Yogesh Kanava

Abstract Romance

4.5  

Yogesh Kanava

Abstract Romance

मत्स्यगंधा

मत्स्यगंधा

3 mins
457


आज वही यमुना वही नीर वही तीर

वहीं बैठी थी वो लिए अपने हिये धीर !

दुग्ध धार ज्यों बह रहा था निर्मल नीर

कोमल देह सुरभित श्यामवर्ण शरीर !

फैली वन उपवन मादकता मधुमास की

सब थे मृग खग सब थे और थी वासवी !

आम्रवल्लियों से महक रहा था उपवन

इधर योजनगंधा बैठी लिए चितवन !

उफनती लहरियों का वह संगीत मधुमय

इधर उफन रहा था यौवन वासवी युववय !

यमुना लहरें भी उछाल उछाल देख रही थी

फेन अपना उसके तन पर फेंक रही थी !

भीगी पिण्डलियां भीगा वक्ष यौवन सारा

मदमस्त था वह यमुना का भी किनारा !

देख यौवन अनावृत उसका कोयल कूक रही

धधकती यौवन ज्वाला में जैसे घी फेंक रही !

देवलोक इंद्रलोक और यमलोक रहे सब देख

इधर कामदेव ने भी अपने सब शस्त्र दिए फेंक !

यक्ष गंधर्व किन्नर मानव सब बेसुध हो जाएँ

लगी होड़ सब में पल भर को रूप वो पा जाएँ !

ऊषा ज्योत्स्ना सा था कितना यौवन स्मित

भूल अपनी ही कस्तूरी गंध मृग कितना विस्मित !

कुसमित कुञ्ज में पुलकित पुष्प अलि प्रेमालिंगन

मधुकर भी मकरंद उत्सव में हुआ देखो संलग्न !

डोले सुना सुना कर गीत वो प्रेम राग के

पहुँच गया वो परवाना जलने निकट आग के !

मृग भी पहुँच गए गन्धाकर्षण में खिंचे हुए

मंद मुस्कान लिए अधर मधुरस सिंचे हुए !

सुरभित शीतल समीर बह रही थी मंद मंद

योजन दूर भी उपस्थिति कह रही थी वह गंध !

हाँ वही थी वह गंधवती मत्स्यगंधा गंधकाली

अधरों पर लिए बैठी थी जो मधुरस की प्याली !

चन्दन वन में जूही चमेली जैसे थी वो वसवी

किन्तु व्याकुल मन नहीं कोई तनिक पास भी !

कोमल बांहें फैला जैसे आलिंगन जादू जगाया

मन चितवन से व्याकुलता आलस को भगाया !

अब वो चंचल हिरणी सी तक रही चहूं ओर

जाग उठा था यौवन प्रलय अब घनघोर !

जो कस्तूरी गंध से महक रहा तन महका महका

निर्लज्ज हवा का झोंका भी यूँ डोले बहका बहका !

इधर योजनगंधा बैठी थी अपने ही ख्यालों में

उधर उलझ रह था मन शांतनु का सवालों में !

चहूँ और फैली कैसी ये मदहोशी है

कोई नहीं किन्तु बड़ी अजब खामोश है !

सारथी खींचो लगाम तुरंग की यहीं पर

उतरा नीचे , रखे पाँव उसने मही पर !

बोला कैसी विचित्र है यहाँ की यह माया

किसने कस्तूरी गंध से उपवन महकाया !

अमात्यवार ठहरो यहीं मैं अभी आता हूँ

खोजने यह गंध स्रोत , मैं अब जाता हूँ !

खिंचा चला गया बह रही नीर यमुना धार

ज्ञात न हुआ तनिक आ गया था योजन पार !

यहाँ यह अश्व कैसे हिनहिनाया है

लगता है अजनबी कोई यहाँ आया है !

मंत्रमुग्ध सा एक राज पुरुष वहाँ खड़ा था

राजसी परिधान शीश मुकुट हीरों जड़ा था !

देख अजनबी को हाथों से वक्ष छुपाया

वो मंद मुस्काया और शांतनु नाम बताया !

कुरुवंश का वह कुलदीपक राजमुकुट सिर पर

फैला था उजियारा बदली हटी ज्यों बिखर कर !

कौन हो देवी ? तुम किस घर जाई हो

अप्सरी कोई देवलोक छोड़ इधर आई हो !

हे राजपुरुष मैं निषाथ कन्या नौका चलाती हूँ

तनिक ठहरो मैं अपनी पतवार लिए आती हूँ !

आज स्वर्ण मुद्राएं मिलेंगी विशेष

भगवन आये हैं यहाँ राजपुरुष भेष !

तनिक ठहरो देवी जी भर देख तो लूँ मैं

जी करता अब शेष जीवन यहीं जी लूँ मैं !

सकुचाई मृगनयनी वो चली कुलांचे भरती

देख रहा था ये गगन , देख रही थी धरती !

आई वो गजगामिनी सी लिए हाथ पतवार

बिठा राजन को , नाव ले चली मझधार !!


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