शोर ज़िंदगी
शोर ज़िंदगी
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सुकून की तलाश में निकली, मैं आज निराश हूँ,
बेतहाशा झूठे वादों से हताश हूँ।
शिकायतों का रोना रोती है अब लोगों की दिल्लगी,
न शान्त, न गुनगुनाती, है अब ये शोर ज़िंदगी।
कई आए और कई चले गए, कोइ ठहरे तो नहीं,
अब कुछ भी सुनाई नहीं देता, कहीं मेरे कान बहरे तो नहीं।
आँधी उड़ा ही ले जाती है पत्तों से पेड़ों की बंदगी,
न धूप, न छाँव की सरगम, है अब ये शोर ज़िंदगी।
रास्ते दिशा भूल से गए हैं,
भटक-कर आपस में ही घुल से गए हैं,
अब ले चली किस ओर ज़िंदगी,
न रास्तों के किस्से, न मंजिल की पुकार, है अब ये शोर ज़िंदगी।