इंतज़ार
इंतज़ार
आजकल दिल खो जाता है ख्वाबों की गलियों में,
कहीं किसीने इत्र तो नहीं लगा दिया कलियों में।
पर चाहत में इतनी शांति कबसे होने लगीं?
प्रीतम के ख्वाब देखे बिना ये आँखें भाला क्यों सोने लगीं?
जब तक उन्हें भूल न जाएँ, इस दिल की हार नहीं,
वो इंतज़ार कैसा, जिसमें दिल बेकरार नहीं?
साँसों में खुशबु, कानों में खामोशी के गीत,
उनके ख्वाब न छोड़े, जब तक रैन न जाए बीत।
खतों के जवाब देर से आते हैं,
देर से आकर भी हज़ार सपने आँखों में जगाते हैं।
सपनों से भरी आँखों में, आते आँसू नहीं,
पर वो इंतज़ार भी कैसा, कि नम आँखों से उन्हें देखने की आरज़ू नहीं।
उन खतों का हर एक अक्षर चीख-चीखकर सब कुछ बताता है,
पर उनतक एक शब्द भी नहीं पहुँच पाता है।
चाहत का एक भी कायदा समझ नहीं आता है,
शायद उलझनों का कारवाँ भी चाहत को ही चाहता है।
तस्वीर में भी प्रीतम से नज़र नहीं मिल पाती है,
वो इंतज़ार ही कैसा, जिसके खत्म होने की घड़ी ही नहीं आती है।