पतझड़ के पत्ते
पतझड़ के पत्ते
जाड़ों की गुनगुनी धूप में नहाकर
बसंत की शांत गुलाबी शाम को
जब में अकेली होती हूँ, मुझे अंदाज़ा नहीं
वो किस करवट मुझ पर गिरता है
वही पुराने मिज़ाज़ में मचल कर
मीलों दूर रहकर जो दर्द दिए हैं तुमने
कैसे माफ़ कर दूँ मैं, प्रेम के गुनहगार हो तुम
ये चाँद सितारे, ये रात की तन्हाईयाँ
सिर्फ तुम्हारो ही याद दिलाती हैं
तुम दोषी कैसे अगर तक़दीर को यही मंजूर था
दिल के मरुस्थल के पल-पल टूटते किनारों में
अभिलाषायें दम तोड़ रही है
जाकर मनाती भी कैसे, जब तुम ही मुझसे
रूठकर बनाने लगे लम्बे फासले
पतझड़ के पत्तों को समेटूं भी तो कैसे।