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Shahwaiz Khan

Abstract Romance

4.5  

Shahwaiz Khan

Abstract Romance

आज भीकल भीऔर हमेशा...

आज भीकल भीऔर हमेशा...

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344


अपनी अपनी अनाओ के कफ़स से हम जब निकले

तब दरमियाँ अपने फ़ासला पाया और

हम स्याह धुंध मे भटकते हुये 

हम कहाँ पहुँचे

तुम कहाँ पहुंचे

फ़ासलो के साथ वकत की रफ़तार भी

कुछ कम ना थी


ज़रा पलक झपकी एक मुद्दत का अर्सा पाया

पाँव तलक अब तेरी दहलीज़ से परहेज़ करते हैं

ख़्याल तक में तेरी सूरत नही आती मगर

एक शराबी का सरापा हाल हुई है ज़िंदगी

पीना छोड़ दी है मगर

साग़र ओ मीना की देखने की आदत नहीं जाती


अब हर कविता में जोड़ रहा हूं तुझे में

टुकड़ा टुकड़ा

कोई पढ़ भी ले अगर

कहानी उसे समझ नहीं आनी 

और हाँ

सुना है तुझे याद में अब भी आता हूँ

सुना है तू मेरी गज़लें गुनगुनाती है


सुना है दुआओं में तुझे में याद रहता हूं

सुना है ज़मीं पर मेरा नाम लिखकर मिटा देती है

ये सब सुनी सुनाई बातों में

ये हक़ीकत में तुझे बता पाता

हाँ में तुम्हें याद करता हूं

हाँ तुम मेरी कविताओं का उन्वान हो

हाँ अब भी चुपके चुपके तुम्हें दुआओं में माँगता हूँ रब से

हाँ में तेरा नाम लिखता कभी मिटाता हूं

हाँ मुझे प्यार है तुमसे

आज भी कल भी और हमेशा।


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