खुली क़िताब
खुली क़िताब
खुली किताब हूं
हर पन्ना था तुम्हें हासिल
हमेशा
हर लफ्ज जद में तुम्हारे था
और नुक्ते तुमने ही लगाए थे
हैरान हूं आज
कि कहते हो
तुम मुझसे अनजान हो
शायद
पढ़ ना पाए मुझको
या शायद
होगे उलझनों में
वक्त ही न मिला होगा
कभी छुप गया होऊंगा मैं
और कहानियों के ढेर में,
या कभी दिल में तुम्हारे
रहा हमसे गिला होगा,
पर पलट लेना कभी इसे
इक बार जब दिल करे,
हर अल्फाज़ में अरदास अपनी ही पाओगे,
अगर निकालने लगोगे मतलब
मेरी बातों के कभी
है वादा तुम सिर्फ मुस्कुराओगे
बहुत कुछ लिखा है मैंने
बीच कतारों के भी
जिसको सिर्फ और सिर्फ
तुमको पढ़ना होगा
मैं जो हूं
हां सदा रहूंगा वही
पर कैसा हूं
सिर्फ और सिर्फ
तुमको ही गढ़ना होगा
खुली किताब हूं मैं
बस इक बार पढ़ना होगा।