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V. Aaradhyaa

Abstract

4  

V. Aaradhyaa

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ग्रीष्म की तपन

ग्रीष्म की तपन

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कैसी बढ़ रही है गर्मी बहुत ही,

देह में होती जलन।

 भर गई नस नस में है,

ताप की कातिल अगन।


इस गहन संताप में बस,

ऐसे याद तेरी आ रही है,

 सांस ठहरी,रुक गया ज्यों,

 है दुपहरी में ग्रीष्म पवन।।


बस थपेड़े गर्म ही तो ,

अब सुबह से चल रहे,

 कर रही घायल सुलगती,

 आज सूरज की तपन।।


तप रहे आंगन दहकते,

 और इस ताप से तन है विकल,

इस ओर से उस छोर तक तो,

तप रहा सारा भवन।।


प्यास अधरों से गुजर कर,

कंठतक आने लगी रुककर ,

 नीर को अब सभी चाहते हैं,,

विकल होकर प्राण मन।।


चिलचलाती धूप में भी देखो,

कैसे काम करते हैं कृषक,

प्याज अमिया का पना पीकर,

 उमस की हरता मन जलन।।


नीड से अब तो कोई इक्का दुक्का,

पक्षी पखेरू आ नहीं बाहर रहे,

आज उनकी देखता रहता है,

 राह अब सूना सूना ये गगन।।


दर्द सिर में हो रहा है बहुत,

अब इस ग्रीष्म तपन के ताप से,

ज्वर विषम पीड़ा भरा हुआ है,

जिसकी लपट से है विकल मन।।


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