शीशा और पत्थर
शीशा और पत्थर
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शीशा नाजुक था बहुत
कर ली मोहब्बत पत्थर से,
टूट कर चाहा उसे, उसने
बेखबर रहा पत्थर उससे।
हज़ार टुकड़ों में बिखर गया
शीशा,खून के आंसू रोया।
फिर भी हर टुकड़े में अपने
पत्थर का अक्स ही संजोया।
ये मोहब्बत नहीं तो और क्या है
एक को होती नहीं,एक की जाती नहीं।
इतने पत्थर दिल कैसे होते कुछ लोग
मासूमों की आह कभी खाली जाती नहीं।