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Kusum Joshi

Abstract

4.9  

Kusum Joshi

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प्रवासी मज़दूर

प्रवासी मज़दूर

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खेत वो खलिहान सारे छोड़ आए,

रास्ते मिट्टी पुकारे छोड़ आए,

छोड़ आए वो सुरीली शाम अपनी,

पेट भरने गांव छोड़ा शहर आए,


वो हवा निर्मल नदी जल छोड़ आए,

घर द्वार आंगन और सलिल वन छोड़ आए,

छोड़ आए प्रेम के रिश्ते कई हम,

अपनी वो पहचान सारी छोड़ आए,


नाम ना जाने कोई मज़दूर हैं हम,

भीड़ में गुम गए प्रवासी ही कहाए,

हमने तो अपना लिया था शहर को भी,

पर बड़े शहरों में घर ना ढूंढ पाए,

खेत वो खलिहान सारे छोड़ आए।


हमने शहरों में बनाए कई बड़े घर,

उद्योग कितने चल रहे अपने ही दम पर,

चलते रहे हर बोझ सर अपने उठाए

,

पर शहर ये जा रहा हमको दबाए,

खेत वो खलिहान सारे छोड़ आए।


दुधमुंहे बच्चों को सिर-कंधे बिठाए,

इस आपदा से टूट फिर से गांव आए,

कल तलक जो भा रहा था शहर अपना,

शहर के सपने सलिल सब छोड़ आए,

शहर छोड़ा आज फिर से गांव आए।


ज़िन्दगी मज़दूर वाली छोड़ आए,

लोभ-पैसा-मोह सारे छोड़ आए,

गांव के खेतों में मेहनत फिर करेंगे,

अपना वो सम्मान पाने गांव आए,

शहर छोड़ा आज फिर से गांव आए।


दो वक़्त की रोटी कमाने गए शहर हम,

आज वो रोटी बचाने गांव आए,

रास्ते -मिट्टी पुकारे लौट आए,

अपने घर अपने जनों के बीच आए,

शहर छोड़ा आज फिर से गांव आए।


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