अवगुण
अवगुण


अपने मुंह मिट्ठू मियाँ
कैसे बन जाऊँ मैं,
अपनी अवगुणी वीणा के
कैसे तार बजाऊँ मैं…!
मैं मृत सी...जीवित इंसान हूँ,
यारों…अवगुणों से भरी खान हूँ!
हर बुराई हर ऐब, हर द्वन्द्व
शामिल है मेरे किरदार में,
तुम बस बोल के दिखाओ
तुम किसके तलबगार हो
मैं मृत सी...जीवित इंसान हूँ,
यारों…अवगुणों से भरी खान हूँ!
मौजूद वक़्त के साथ चलते
रहने वाला एक मोहरा हूँ,
एक साँचे में कैसे उतरूँ,
मैं एक व्यक्तित्व दोहरा हूँ;
मैं मृत सी...जीवित इंसान हूँ,
यारों...अवगुणों से भरी खान हूँ!
मैं वक़्त की अदालत में
रोज़….पेशी लगाती हूँ;
अवगुणों की फेहरिस्त से
अपने ही हर गुण हटाती हूँ;
मैं मृत सी...जीवित इंसान हूँ,
यारों...अवगुणों से भरी खान हूँ!
लोभ, मोह, काम, क्रोध संग
मैं मदमस्त.. टल्ली सी रहती हूँ,
अहा! अवगुणों से भरी खान हूँ
देखो हरदम तसल्ली में रहती हूँ;
मैं मृत लेकि
न जीवित इंसान हूँ,
यारों...अवगुणों से भरी खान हूँ!
बहुत झू…ठ बोलती हूँ,
कितनी नफरत तोलती हूँ,
अनकहे, अजूबे राज खोलती हूँ,
बेफिक्र अपनी धुन में डोलती हूँ
मैं मृत लेकिन जीवित इंसान हूँ,
यारों…अवगुणों से भरी खान हूँ!
मिथक...सच से भागती हूँ,
सुप्त सपनों में भी जागती हूँ,
अपने नासूरों को दागती हूँ, किन्तु
ऊपर वाले से कुछ ना मांगती हूँ
मैं मृत लेकिन जीवित इंसान हूँ,
यारों...अवगुणों से भरी खान हूँ!
मैं वक़्त की अदालत में
रोज़….पेशी लगाती हूँ,
अवगुणों की फेहरिस्त से
अपने ही हर गुण हटाती हूँ,
हाँ...सनक से भरपूर हूँ,
हाँ...मद में जाने क्यूँ चूर हूँ,
क्षण भंगुर खुशियों से बहुत दूर हूँ,
पर मुस्कुराती दिल से ज़रूर हूँ…!
मैं मृत लेकिन जीवित इंसान हूँ,
यारों...अवगुणों से भरी खान हूँ!
क्यूँकि मतलब परस्ती का
जबतक रुआब है,
समझ लो…खुदा होना भी
तो एक ख्वाब है!