STORYMIRROR

ANIRUDH PRAKASH

Abstract

4  

ANIRUDH PRAKASH

Abstract

Ghazal No. 26

Ghazal No. 26

2 mins
318

सीने में गुबार रखा है दिल को बेकरार रखा है 

राह-ए-इश्क़ में हर इम्काँ के लिए खुद को तयार रखा है


ज़िंदगी यहाँ वो सल्तनत है कि जहाँ बिछे हैं

गुल कदमों में और सर पर ताज़-ए-ख़ार रखा है


जून की तपती दोपहरी में भटके है जैसे कोई मुसाफिर

ज़िंदगी को भी हमने बस यूँ गुज़ार रखा है


की तो थी मुलाज़मत तामीर-ए-आशियाँ के लिए

मगर उसी के शग़्ल ने मुझको अबतक बे-दयार रखा है


हासिल हुई है बस उसकी को शौक़-ए-ज़िंदगी जिसने 

ज़माने के हर तंज़-ओ-तन्क़ीद को दर-किनार रखा है


तमाम शहर है अमन-ओ-चैन की गिरफ़्त में 

आज उसने अपनी जुल्फ़ों को सँवार रखा है


जानता था थक जाओगे उसे तोड़ते तोड़ते सो

दिल को हमने पहले से ही ज़ार-ओ-निज़ार रखा है


हक़ीक़त-ए-ज़िंदगी में तो हासिल हुआ कुछ भी नहीं

दास्ताँ-ए-ज़िंदगी को मगर हमने शाहवार रखा है


अगरचे ज़िंदगी मेरी दास्ताँ की अहम शख़्सियत है 

उसी ने कहानी में पोशीदा अपना किरदार रखा है


तमन्ना थी मुझे रंग-बिरँगे फूलों के दरमियाँ रहने की 

सो उसने मुझे दिए हुए ज़ख्मों को रंग-दार रखा है


बेखबर हूँ शब-ओ-रोज़ के हंगामों से मगर तेरी 

एक आहट सुनने के लिए खुद को होशियार रखा है


यूँ तो घर में खरीदी हर चीज़ ने मुझे ख़ुशगवार रखा है

बस कमबख़्त इस आईने ने मुझे सोगवार रखा है


मिलीं हैं साँसें गिन के इस जहाँ में सो हमने 

तेरे फ़िराक में नफ़स पर इख़्तियार रखा है


तुमने हमारे हर सच को मज़ाक समझा है 

हमने तुम्हारे हर झूठ पर एतबार रखा है


बिसात क्या आईने की उसके रु-बा-रु 'प्रकाश'

जिसने अपने अक्स को भी शीशे में उतार रखा है


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract