Ghazal No.3 हो ना जाए मुझे कहीं खुद से मोहब्बत
Ghazal No.3 हो ना जाए मुझे कहीं खुद से मोहब्बत
मैं तेरा साया हूँ मुझे ज़ाया ना कर
शब-ए-फ़िराक में छोड़ के मुझे घटाया ना कर
वक़्त दे रिश्तों को उन्हें घड़ी घड़ी आजमाया ना कर
रंग चढ़ने से पहले हाथ की मेहँदी छुटाया ना कर
ज़माने की रुसवाइयों को दिल पे लगाया ना कर
अश्कों को दाग़-ए-कबा छुड़ाने में ज़ाया ना कर
हासिल होता नहीं कुछ भी सीधी राह पर चलकर
इल्म-ए-किताब को सर-आँखों पर बिठाया ना कर
कुछ तो भ्रम रहने दे ज़माने में हमारी उल्फ़त का
मेरे खत यूं सरेआम जलाया ना कर
कमबख़्त ना-मुराद इश्क़ ही तो है ख़ुदा की इबादत नहीं
आँख से आँख मिला सजदे में सर झुकाया ना कर
हो ना जाए मुझे कहीं खुद से मोहब्बत
मुझमें तू खुद को यूँ समाया ना कर
सो ना पायेगा तू सुकूँ से कामयाबी की सेज़ पे
अपने सोये हुए ज़मीर को जगाया ना कर
दरक़ार है ना जाने कितने ग़मों को तेरे तवज्जोह की
बस मेरे ग़मों से ही अपने दिल को बहलाया ना कर
लुत्फ़-ए-हयात है जबतक उलझी है इसकी पहेली
तू रु-बा-रु मेरे अपनी ज़ुल्फें सुलझाया ना कर
भर आई हैं आँखें तो इन्हें छलक जाने दे
छोटी सी झील में समंदर बसाया ना कर
बड़े नाजुक ग़म के धागों से सिया है ज़ख्म-ए-दिल
तू मुझे दिल खोल के हँसाया ना कर
एक वही तो हैं जो किसी भी उम्र में लौटा सकते हैं तेरा बचपन
अपने तिफ्ली के दोस्तों को भूल के भी भुलाया ना कर
वफ़ा-ए-हुस्न तो है सराब सहरा-ए-इश्क़ में
उसकी वादा खिलाफ़ी को दिल से लगाया ना कर