परसों ही
परसों ही
परसों ही मेरी मुलाकात हुई थी मायूसी से
मेरे सामने ही खडी थी
ग़म के बीज बोने निकली थी
यादों की बोरीयों मे अकेलेपन की खाद लिए
एकदम चुपचाप सी कुछ ढुँढ रही थी
फिर उसने मुझसे पुछा,
"हुई थी क्या हाल ही में बारिश कहीं?"
मैने भी थोडी हिम्मत जुटा कर
उसकी सवाल पर सवाल थोंपा,
"धूप के महीने में बारिश कैसी?"
उसकी सवाल पर
मेरी जवाबी-सवाल के हमले से
मुझे महसूस हुआ की
अब उल्टे पाँव चलती बनेगी
पर उसने कहा की
खबर तो उस तक पहुँची थी,
की हाल ही बारिश कहीं पे हुई थी,
पर बौछारें पानी की नहीं,
आँसूओं की थी
बस और क्या था,
जैसी खडी थी मायूसी पहले
वैसी दशा तब मेरी थी
रह गया हूॅं सहमा सा मैं तभी से
परसों ही जब मेरी मुलाकात हुई थी मायूसी से
सही महसूस करी थी उसने
आँसूएं मेरी ही टपकी थी
फिर कहने लगी की
जख्म़ों की गढ्ढों पे खाद डालेगी,
बोएगी सारी ग़म की बीजें,
उन पर सींचेगी आँसूओं का पानी
और कही
हर अनुर्वर सोच को देगी उर्वरता
उगाने को उनपे दर्द की जंगलें,
उसने है ठानी
मैने ज़रा सा हॅंस के कहा के
न यहाँ पानी न आँसू टपकी
लगती तुम हो गलतफहमी में बहकी
देखो होंठों पे है यहाँ मुस्कान
जी रहे हम यहाँ है सीना तान
सहसा रोका और बोला तब उसने
हँसी से अपनी न बहकाओ
न उलझाओ अपनी बोली में
देखो है ठहरी नमी तुम्हारी आँखों में
और उर्वरता तुम्हारी ही सोच में
तब मैं और क्या भी कहता
अपने कदम मैंने पिछे मोडी
ताक रही थी मुझे मायूसी
ज्यों-का-त्यों अपनी जगह खडी
पर मैंने भी हार न माना
अपना राज़ उसे न जताने को ठाना
ढोंग कर रहा हूँ बाहर से
पर अन्दर से
छाया रहा है सन्नाटा दो बीते दिनों से
परसों ही मेरी मुलाकात हुई थी मायूसी से।