हर रोज
हर रोज
हर रोज घड़ी दो घड़ी
ठहर जाता हूँ,
किसी सुनसान जगह पे
जहाँ थके धड़कनों को सुकून मिले,
मेरी मजबूर जिंदगी की
बेरहम यथार्थवादिता से,
हर रोज घड़ी दो घड़ी
जी लेता हूँ
दुआओं से मिले कुछ नायाब पल
जो राहत भरी थपथपी देते हैं मेरे कंधे पे
मेरी तरंगित भावनाओं को
बाँधते हुए स्वप्नस्दृश धागे से,
हर रोज घड़ी दो घड़ी
बहक जाता हूँ
अपनी ही अवचेतन में
खुद को गुमराह करने की कल्पना में
तन से आत्मा को खींचते हुए
रूह में राहतें सींचते हुए,
हर रोज घड़ी दो घड़ी
बैठ जाता हूँ
अनागत खुशियों की आस में
सारे गिले शिकवों के साथ आँखें मूँद कर
नदी के किनारे आसमान के नीचे
सपनों की आड़ में हकीकत के पीछे,
हर रोज घड़ी दो घड़ी
मर लेता हूँ
व्यथित जीवन से स्वतंत्र होने
किसी किताबी कहानी के किरदार के जैसा
हर दुसरे पन्ने के दुखांत के बाद
संघर्ष के नये पन्नों की प्रतीक्षा में