काबिल
काबिल
देखा करता था सपनें पहले रातों मे
अटल था कामयाब होने की चाहत मे
हौसलें थे मुश्किलें जूझने की जिगर मे
अब निंदे कहतीं सपनों के लायक मैं नहीं
शायद कभी था काबिल जिंदगी में
उडने की आश लिये दौडा था मैदानों में
छलांगों पे गिरता था मैदानी घासों के गोद में
उडने भी लगा था गुजरती हवा की टोली में
निचे से मैदान ने कहा के उडने लायक मैं नहीं
शायद कभी था काबिल जिंदगी में
था पुराना कोइ जमाना हँसी देता था होठों में
बाँटा करता था ख़ुशीयाँ हर एक मायूसी में
और शामिल हो जाता था उन्हीं मुस्कानों में
पर हँसी ने कहा अब हसाने लायक मैं नहीं
शायद कभी था काबिल जिंदगी में
हर मुश्किल से भी मुश्किल हालातों में
खुद टूट कर धीरज बाँधा करता था दूसरों में
पर न जाना था कि वे गिनते मुझे हैं परायों में
उन्होंने कहा के अपना कहने लायक मैं नहीं
शायद कभी था काबिल जिंदगी में
हो जिंदगी से नाराज़ था चला अकेले पन में
ताकि सून सकुँ धड़कने अपनी इसी राह में
जब सुना तब धड़क रही थी किसी उल्झन में
तभी धड़कनें भी साफ कहीं के जिने लायक मैं नहीं
शायद कभी था काबिल जिंदगी में।
