दुविधा
दुविधा
स्त्री मन की पुरानी गाथा
दुविधा यह की कहते
सब उससे अपने मन की
हर छोटी बड़ी कथा
पर कब सुनता कोई
उसकी मन की व्यथा
खुद से कहती मन में रोती
नीर भरे नयनों से न जाने
कितनी रातें सोती
फिर सुबह होती वो
रहती सबके आगे पीछे तथा
ढोती सबके काज
मिल जाए कोई तोता उसको
जो सुने उसकी बात
खोल पाए वो अपने मन की
परसों पुरानी हर गाँठ
दे उसकी उलझनों का
तानों रहित जवाब।
