उड़ान
उड़ान
भरता घोंघिल पक्षी उड़ान नील गगन को छू लेने की चाह में,
लौट आता शाम को फिर अपने घोंसले में परिवार के पास,
ज्वाला करता शान्त उदर की खाकर मछली, केंचुए या घोंघा,
रखते नन्हे बच्चों का ध्यान नर-मादा बारी बारी नहीं करते झगड़ा।
भरना चाहती थी उड़ान नारी भी छूने को आसमान,
पुरूष प्रधान समाज ने न होने दिया प्रशिक्षित उसे,
रखा बन्द चार दिवारी में न दी लगने हवा बाहर की,
मिटाती भूख अपनी बचे खुचे पुरूष की इच्छा से बने भोजन से ।
परिवर्तन है नियम जगत का मिली स्वतंत्रता नारी को परन्तु,
बस इतनी कि कर ले दृष्टिपात सीमित दुनिया की घर से बाहर,
देख खुले आकाश में पक्षियों का कलरव तड़प उठी नारी भरने को उड़ान,
करने लगी विद्रोह वह अब पैर में लग
ी बेड़ियों का।
मिली स्वीकृति प्रशिक्षित होने की परन्तु थी बन्दिशें भी साथ में कुछ,
नहीं मिला अधिकार समानता का होगा सम्भालना घर, बच्चे, रिश्ते,
ली कस कमर नारी ने निभाने को भूमिकाएँ सभी कुशलतापूवर्क,
बहने लगते अश्रु नेत्रों से देख आसमान में उड़ान भरते पक्षियों को।
अन्ततोगत्वा दी स्वीकृति भरने की उड़ान पुरूष प्रधान समाज ने,
उड़ लेती दिन भर नील गगन में लौट आती शाम ढ़ले घरौंदे में अपने,
परन्तु कैसी है स्वतंत्रता?
है बंधी रस्सी पाँव में जब चाहा खींच ली बस हुई बहुत उड़ान।
शायद नर पक्षी समझता अपना उत्तरदायित्व मानव से अधिक भलीभाँति,
नर मादा घोंघिल बाँट बराबर दायित्वों को जी लेते समानता पूर्वक जीवन।।