पाकीज़ा
पाकीज़ा
हूँ तवायफ मैं,
पर वस्त्र के अंदर की रूह से,
मैं अब भी पाकीज़ा हूँ...
कोई वजह है,
तब ही बाज़ार
हसीन करने चली हूँ...
.पर दिल का आईना
आज भी साफ है,
उसके धूंधलेपन पर,
सवाल ना उठाने की,
मैं तुम सब से
इल्तिजा करती हूँ...
हाँ, मैं अब भी पाकीज़ा हूँ...
मैं रंगीन कर देती
किसी की शाम,
अपनी मजबूरी में,
पर मैं आज भी दिल से बेरंग हूँ,
लेकिन मेरी जिस्म को देख,
मेरी रूह की सादगी पर
सवाल उठाते हो,
इन सारे सवालों को सुन
मैं ज़रा सा दंग हूँ...
हाँ, मैं अब भी पाकीज़ा हूँ...
आई हूँ इस बाजार में,
इसके पीछे कोई तो
मेरी मजबूरी होगी...
माँ-बाप का साया ना होना,
और भाई-बहन की
पेट की भूख अधूरी होगी...
लेकिन इन सब को देख,
तुम क्या समझ सकते।
तुम तो बस मेरे बाहरी
रूप को देख,
मेरे बारे में
क्या-क्या सोच लेते हो...
दिल कैसा है मेरा,
ये तो कोई तुम में से मुझसे,
एक बार भी नहीं पूछते हो...
जो भी हो,
पर हूँ तुम लोगों के लिए,
मैं एक तवायफ ही...
लेकिन बस मैं ही जानती हूँ,
मैं कौन हूँ ?
हाँ, हूँ तवायफ मैं,
पर वस्त्र के अंदर की रूह से,
मैं अब भी पाकीज़ा हूँ,
हाँ, मैं अब भी पाकीज़ा हूँ...