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Aman Alok

Abstract

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Aman Alok

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कब्र

कब्र

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आकर मेरी आगोश में,

तुम सुकून की बात करने लगे हो।

इतनी खामोशी है अब तुम्हारे अंदर की,

तुम खुद की आवाज़ सुनने लगे हो।

हाँ, कब्र की आगोश में हो तुम।


तुम्हारे जिस्म को निचोड़कर पिघलाता समय का ये डोर,

कुछ हफ्तों तक ही तुम्हारे साथ है।

हड्डियां पिघलने के बाद कहाँ मिलने वाला समय का फिर से ये हाथ है।


जो फूल तुम्हारी कब्र पे रोज चढ़ाई जाती है,

क्या वो फूल की खुशबू तुम्हारे रूह तक पहुंच पाती होगी?

अगर वो खुशबू मिट्टियों से रिसते हुए तुम्हारे बदन को चूम पाती,

तो बेगाने होकर तुम्हारे माँस को यूँ मिट्टी की कण में निचोड़े नहीं जाते।

और जो फ़ातिहा तुम्हारे कब्र पे पढ़ा गया होगा,

क्या वो तुम्हारे आत्मा की शांति के लिए पढ़ी गई थी या वो भी मनुष्य का एक ख़ल था।

तुम्हारे जाने पे उस भगवान से क्या दुआ और क्या शिकायत किसी की,

ये सारा रिश्ता तो एक छल था।


क्या अस्तित्व है तुम्हारा?

तुम जो गये तो सब तुम्हें भूला दिए।

कौन अपना और कौन पराया?

मिट्टी में सब रिश्ते तुम्हारे साथ ही वो दफना दिए।


तुम मनुष्य हो,

तुम्हारे बाद तुम्हारी कोई परछाई नहीं होगी।

कब्र की आगोश में,

तुम्हारी कोई अच्छाई नहीं होगी।


वो जो तुम्हारे जाने पे हफ्ते भर आँसू बहाते फिर रहे थे,

वो भी समय के साथ तुम्हें भूला चूके है।

अब है ही कौन तुम्हारा?

अगर कोई होता,

तो कल की मुरझाई हुई फूल के जगह फिर से महकती हुई फूल आज तुम्हें चढ़ाने आता।

लेकिन दिन बितते जा रहे है,

तुम्हारा अपना कोई नहीं है अब,

देखो! कोई नजर आ रहा है?

फूल भी अब उस हवा के झोकों के साथ कहीं और जा चुकी है,

जो तुम्हारे अपनों के दिए हुए कुछ निशानी थी।


और जो है तुम्हारे साथ अब,

तुम उसी की आगोश में बैठे हो,

हाँ मैं कब्र हूँ,

मैं तुम्हारे अस्तित्व के मिट जाने के बाद ही तुम्हारे साथ होता हूँ,

हाँ, मैं कब्र हूँ।


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