नजर....
नजर....
ये नजर भी कुछ कहता है,
अलग अलग सोच से बदल भी जाता है,
कभी ममता भरी आंखें ढूंढ़ता हैं,
कभी आंसुओं से प्यार की सावन बरसता है,
कभी सीने में लगा के लोरी सुनाती है,
कभी सूरत से भूख को परख लेती है,
कभी रूठ जाने पे मनाने लगती है,
ये तो माँ की नजर, ये नजर भी कुछ कहता है.
समय का पहिया चलता रहता है,
एक ओर कुछ नजर दिखलाता है,
कभी पढ़ने लिखने की बेचैनी हरकतें बढ़ाता है,
कभी अपने सपनों को पाने की चाहत बढ़ता है,
आगे बढ़ने की लक्ष्य में कुछ भूल जाता है,
कभी कभी पीछे मुड़ के देख के अनदेखा करता है,
संतान भले भूले, पर माँ की नजर आशीष देता है,
ये नजर भी कुछ कहता है.
समय के साथ सब बदल जाता है,
फिर कुछ टकरार कुछ अहंकार दिखता है,
कभी कुर्सी के लिए आपस में लड़ते है,
कभी अपनी ज़िन्दगी से खिलवाड़ करते है,
झूठ की दीवार को अहंकार से खड़ा करते है,
अपनी संस्कार को भूल के कुछ और कर जाते है,
पर देर से ही हो अच्छाई की जीत होती है,
जो अपनी संस्कार को साथ ले के चलते है,
ये भी कुछ सोच से नजर आता है,
जब इंसान थक जाता ओर सोचता है,
ओर माँ की ममता भरी नजर नजर आता है,
कुछ पल की सुकून तो मिलता है,
ये नजर भी कुछ कहता है.