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Aravind Kumar Singh Shiva

Abstract

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Aravind Kumar Singh Shiva

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॥ खंजर ॥

॥ खंजर ॥

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कारण क्या था पता नहीं,

थी मेरी कोई खता नहीं,

वो पाँव पटककर चलें गए,

मैं नासमझ अभी तक खड़ा वही ।


आशा थी की पलटेंगे वो,

कुछ बोलेंगे कुछ समझेंगे वो,

पर चलपड़ेः वे मतवालों से, 

फिर निकल पड़े बेगानों से ।


मैं आवाज़ लगाना चाहा था,

पर निकट खड़ा आवारा था,

वो अवारो की टोली में,

शामिल होकर मचल पड़े ।


मन ब्यथित हो घबराया था,

पर रोक नहीं मैं पाया था, 

मैं शब्द शून्य हो बैठा था,

जब उसको इतराते देखा था ।


जब जख्म संजोये सीने में,

पीछे मुड़ बढ़ा अँधेरे में, 

तब पीठ में खंजर घोपा था,

फिर भी मैं उसको नहीं रोका था ।


मेरी लहू देख वो मुस्कुराये थे,

फिर अवारो को भी ललकारे थे,

थोड़ा और लहू निकालो तुम,

कुछ और इसे तड़पाओ तुम ।


आवारे पागल हो बैठे,

ख़ंजरों से क़त्ल वो कर बैठे,

वो प्रफुल्लित हो उठे मेरी घावों पर,

मैं गिर पड़ा बीच चौराहे पर ।


राख़ बची थी शाख बची थी,

जीने का एहसास बचा था, 

चोटों से बहती लहुओ के संग,

मैं खड़ा हुआ तलवारो पर ।


मैं चोट छिपाने बैठा था,

कि वो फिर से पाँव पटक बैठे, 

मैं स्तब्ध खड़ा हो जाता हूँ,

फिर मंद मंद मुस्काता हूँ ....

मंद मंद मुस्काता हूँ.......



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