॥ खंजर ॥
॥ खंजर ॥
कारण क्या था पता नहीं,
थी मेरी कोई खता नहीं,
वो पाँव पटककर चलें गए,
मैं नासमझ अभी तक खड़ा वही ।
आशा थी की पलटेंगे वो,
कुछ बोलेंगे कुछ समझेंगे वो,
पर चलपड़ेः वे मतवालों से,
फिर निकल पड़े बेगानों से ।
मैं आवाज़ लगाना चाहा था,
पर निकट खड़ा आवारा था,
वो अवारो की टोली में,
शामिल होकर मचल पड़े ।
मन ब्यथित हो घबराया था,
पर रोक नहीं मैं पाया था,
मैं शब्द शून्य हो बैठा था,
जब उसको इतराते देखा था ।
जब जख्म संजोये सीने में,
पीछे मुड़ बढ़ा अँधेरे में,
तब पीठ में खंजर घोपा था,
फिर भी मैं उसको नहीं रोका था ।
मेरी लहू देख वो मुस्कुराये थे,
फिर अवारो को भी ललकारे थे,
थोड़ा और लहू निकालो तुम,
कुछ और इसे तड़पाओ तुम ।
आवारे पागल हो बैठे,
ख़ंजरों से क़त्ल वो कर बैठे,
वो प्रफुल्लित हो उठे मेरी घावों पर,
मैं गिर पड़ा बीच चौराहे पर ।
राख़ बची थी शाख बची थी,
जीने का एहसास बचा था,
चोटों से बहती लहुओ के संग,
मैं खड़ा हुआ तलवारो पर ।
मैं चोट छिपाने बैठा था,
कि वो फिर से पाँव पटक बैठे,
मैं स्तब्ध खड़ा हो जाता हूँ,
फिर मंद मंद मुस्काता हूँ ....
मंद मंद मुस्काता हूँ.......
