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Niharika Singh (अद्विका)

Abstract

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Niharika Singh (अद्विका)

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अवशेष

अवशेष

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पुरानी सी नाव, 

टूटी सी पतवार।

तन्हा सा नाविक, 

घिरती संध्या का अँधियार।


कर रहा कुछ गाने की चेष्टा, 

चाहता स्वयं को बहलाना।

है ज्ञात किनारा दूर अभी,

नहीं पास कोई सुननेवाला।


पार पहुँच भी जाए तो,

फ़र्क़ नहीं कुछ आनेवाला।

सूने से उस दूजे तट पर,

है कौन अपना कहनेवाला ?


दूर तक फैले तट के रेत-कणो में,

बिखरे से भव्य भवन के अवशेष।

जिन्हें देखने को हो रही यात्रा, 

जिनके हित हो रहा है प्रयत्न विशेष।


समझ नहीं पा रहा आख़िर क्यों,

कर रहा इन कष्टों का सामना।

क्यों इतना लगाव अवशेषों से, 

क्यों फिर-फिर देखने की चाहना।


पर कुछ ऐसी मोहिनी सी उनमें,

के रोक नहीं स्वयं को पाता।

कितने भी तूफ़ाँ आएँ मार्ग में,

मन बार-बार उधर ही जाता।


मालूम है अब है नहीं वहाँ कुछ,

बचे हैं केवल भग्नावशेष।

फिर भी मन में उनके प्रति,

बचा रह जाता कुछ लगाव शेष।


माना कभी वहाँ भी जगमग,

दीवाली के दीपक थे जलते।

होली के इंद्रधनुषी रंगों की,

अबीर से थे आँगन खिलते।


पर अब वे पुरानी सी बातें सब,

जिनको निगल गया कब से अतीत।

अबतो उस खंडहर का माहौल,

करने सा लगता मन को भयभीत।


पर अतीत में जाने क्या शक्ति,

वह बाँधकर रखता है मन।

जब चाहे मानस पर छा जाता,

बरसने लगता है बादल सा बन।


मुट्ठी में रखता जकड़कर, 

कर न पाते उसकी उपेक्षा।

दिखने लगता सजीव सा बन, 

देने सा लगता है शिक्षा।


चाहे किसी का तरसते ही,

बीत गया हो पूरा का पूरा दिन। 

चाहे चला हो फूलों पर,

या काटा हो हर पल गिन-गिन।


बार-बार वह याद दिलाता,

धूप-छाँव वर्षा के मौसम।

कभी जगाता मुसुकानों को,

कभी याद दिलाता सारे ग़म।


चाहता अकसर हर प्राणी,

पाना इस सब से छुटकारा।

पर सीता तक ने आश्रम में,

अतीत तो लिखवाया सारा।


अपना हर हास-अश्रु मोती सम,

चुन-चुन कर बनवाई माला।

जिसके छंदों के करुण स्वरों ने,

अवध का हृदय द्रवित कर डाला।


तो साधारण मानव की क्या हस्ती,

जो कर दे बीते लम्हों का विस्मरण ?

सबके समक्ष हो, चाहे अकेला ही,

पर करता है अवश्य वहाँ पर भ्रमण।


चाहे समय की आँधियों ने आ-आ,

कर दिया हो क्षत-विक्षत पिछला हर क्षण।

फिर भी वहाँ के अवशेषों में,

भरा होता है कुछ विचित्र आकर्षण।


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