कान्हा जी...!
कान्हा जी...!
साँवली सूरत रूप सलोना
कान्हा कैसा जादू कर डाला
रंग दिया मुझे प्रीत में अपने
मुझको अपना सा कर डाला।
तेरी लकुट कमरिया बरबस
मन को मोहती रहती है
सुबह शाम बस तेरी धुन में
राधा खोई रहती है।
तेरे पैरों की पैजानियाँ
जब छन छन छन छन करती है
संगीत मधुर कानों में मेरे
हरदम बजती रहती है।
मधुर मुस्कान नैनों की भाषा
कान्हा तेरी है मतवाली
मेरे मन के दर्पण में ये
हृदय पुंज सी बसती है।
ना मैं राधा ना मैं मीरा
मैं तो बस फकीरा हूँ
कान्हा कान्हा नाम जपूँ मैं
हर लो मेरी पीरा तुम।
हे मोर मुकुट गोविंद गिरधारी
हे दुष्टों के संहारी
हे पालन कर्ता सृष्टि नियंता
हे युग युग के अवतारी।
थोड़ा चंचल थोड़ा भोला
कान्हाजी, अरज हमारी सुन लो तुम
महाभारत रण में पार्थ को जैसे
दिव्य ज्ञान मुझ में भर दो तुम।