परिंदों की पत्थर से गुफ्त़गू..
परिंदों की पत्थर से गुफ्त़गू..
मीलों तक फैले पत्थरों के जंगल,
हरियाली का नामोनिशान नहीं।
उड़ते परिंदे कहां पनाह लें,
पत्थर ही है, दूजा जहान नहीं।
परिंदों को पनाह देते यह पत्थर
हैं प्रकृति के मूक कारिंदे ,
फिजा में सुर राग घोलते ये परिंदे,
हैं प्रकृति के सुरीले साजिंदे।
पत्थरों की खोह में पलते
पत्थरों से बातें करते नन्हे बाशिंदे,
हमदोस्त हैं ये पत्थर और ये परिंदे।
इन हमदोस्तों के बीच जगी आरज़ू क्या क्या...
परिंदों की पत्थरों से हुई गुफ्तगू क्या क्या....
पत्थरों की कंदराओं पर, आकार लेते घोसले।
पत्थर मौन रहकर, उड़ान को देते हौसले।
दम भरते नन्हे परिंदे, पत्थरों की छांव पर,
जाने कितने वर्षों से चल रहे ये सिलसिले।
हमदोस्त हैं ये पत्थर और ये परिंदे।
इन हमदोस्तों के बीच जगी आरज़ू क्या क्या...
परिंदों की पत्थरों से हुई गुफ्तगू क्या क्या....