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Wasim Khan

Abstract

4.6  

Wasim Khan

Abstract

हाँ मैं मजदूर हूँ

हाँ मैं मजदूर हूँ

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हाँ मैं मजदूर हूँ 

हाँ मैं मजबूर हूँ


चलने के लिए पैदल सड़क पर

मरने के लिए सड़क पर 

हाँ मैं मजबूर है 

हाँ मैं मजदूर


जो पहुंच ना सका अपने घर तक 

वो भटका हुआ मजदूर हूँ 

हाँ मैं मजबूर हूँ 

हाँ मैं मजदूर हूँ


जिन महलों मैं रहते हो तुम शान से 

ये बनाए हुए हमारे हाँथ से 

आज मैं बेघर मजदूर हूँ 

हाँ मैं मजबूर हूँ


जिस सड़क को तुम नाप ना सके गाड़ियों से 

उसको तो मैनें नापा है पांव की एडियो से 

और नापने को मैं मजबूर हूँ 

 हाँ मैं मजदूर हूँ 

 हाँ मैं मजबूर हूँ


किया इतनी सस्ती है जान हमारी

जिसे तुम सड़क पर कुचल देते हो 

सोए हुए सिरो को रेल स

े काट देते हो

वो कटता, मरता, पिसता हुआ मजदूर हूँ 

हाँ मैं मजबूर हूँ 

हाँ मैं मजदूर हूँ


अमीरों को जहाँज़ों से लाया गया 

हम्हे पैदल भी ना चलने दिया गया

जब चले तो पड़ी लटिया

वो लटियो से पीटता हुआ मजदूर हूँ 

हाँ मैं मजबूर हूँ

हाँ मैं मजदूर हूँ 

 

पियास से हलक सूख गया

भूख से पेट चिपक गया

खाने को मैं पत्ते मैं मजबूर हूँ 

हाँ मैं मजदूर हूँ

हाँ मैं मजबूर हूँ


ए हौसले गांव की दूरी को मत देख

सूरज की कड़कती हुई धूप को मत देख

भूख से चिपकती पेट की आंत को मत देख

छालों से भरा पड़ा पांव को मत देख

तू इस देश का मजदूर है

भलेई तू मजबूर है

चल और मजिल तक चल

जो पहुंचा अपने घर वो मजदूर हूँ 

हाँ मैं मजबूर हूँ।


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