निराशा
निराशा
लौट आया हूं, जीवन समर से
थक चुका यह तन नश्वर।
टूट चुका है, आशा का बन्धन,
सुनाऊं किसे यह वेदना गहनतर।।
इस जीवन रण यात्रा में
पद-चाल हो गये अब कुंद।
करुण-वेदना जागृत हुयी,
राहें अन्तर्वाष्प से हुये धुंध।।
पहले भी गिरा था अनेकों बार
पर गिरकर उठ खड़ा हो जाता था।
विपदाओं से लड़कर, निखरकर,
हर संकट से लड़ जाता था ।।
नहीं रहा अब वो अलबेलापन
हो चुका ढलते सूरज सा शरीर।
दबा हूं जिम्मेदारियों के बोझ तले,
उठ रही है रग-रग में पीर।।
झोंका विपदा की है आयी
उम्मीद की लौ बुझाने को ।
पुष्पित, हर्षित जीवन लतिका को,
अश्रु की तमस कालिमा में डुबाने को।।
दीर्घ निशा के सघन तमस में
क्या जीवन में खो जाऊंगा।
असिंचित,असेवित पादप सा,
आखिर कब तक मुरझाऊंगा।।
