नदी की आत्मकथा
नदी की आत्मकथा
कितनी धुली धुली थी मैं
श्वेत श्वेत वस्त्र पहनकर
शिखरों से उतरी थी मैं ।
कंदराओं से भटकती मैं
उछल-उछल, कूद कूदकर
बाबूल के घर से चली थी मैं ।
मोती की लड़ियों को मेरी
श्यामल कितना कर दिया।
गौर उजली काया को मेरी
गंदगी से कितना भर दिया।
विपदाओं से खुद ही बचो,
आत्म मंथन अब तो करो।
बाॅटल की अब बनी हूँ मैं
प्लास्टिक का वस्त्र पहनकर
मृतावस्था को चली हूँ मैं ।
बदबू सा ढोया पानी मैं
अस्थियों विसर्जन कर
सुप्तावस्था को गई हूँ मैं ।
मैं फहरा दूँगी आँचल मेरा
सबको वश में कर लूंगी ।
बंद करो आत्महनन मेरा
आत्म दहन मैं कर लूंगी ।
विपदाओं से खुद ही बचो,
आत्म मंथन अब तो करो।