अनजान सफर

अनजान सफर

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ना राह का पता ना ठीकाने का

ना कोई हमसफ़र मुझ पागल दीवाने का

नहीं पता कौनसा नगर, कहां डगर है

जिस तरफ मैं चला हूं अनजान सफर है।


किससे पूछू कोई बताना ही नहीं चाहता

मेरे लिए कीमती वक्त कोई

अपना गंवाना ही नहीं चाहता

मतलबी है सब नहीं कोई किसी का

जिसके पास लाठी ! है सब कुछ उसी का

पहुंच पाऊंगा या नहीं ना मुझे खबर है

जिस तरफ मैं चला हूं अनजान सफर है।


दिक्कतें बहुत है पर चले जा रहा हूं

कांटो, पत्थरों से टले जा रहा हूं

यह भी पता नहीं कि कहां जाना है

रुकना भी है या चलते ही जाना है

दिखाई नहीं देता दूर मंज़िल है या

धुंधलाई मेरी नजर है

जिस तरफ मैं चला हूं अनजान सफर है।।


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