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Omdeep Verma

Abstract

4.0  

Omdeep Verma

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सुनो ! मैं प्रकृति बोल रही हूँ

सुनो ! मैं प्रकृति बोल रही हूँ

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सुनो! मैं प्रकृति बोल रही हूं 

बहुत साल हो गए मुझे 

घुट-घुट कर मरते हुए 

आज कुछ अपनी कहने

कुछ तुम्हारी सुनने आई हूं 


अगर कुछ मानो मेरी तो 

एक फरियाद लेकर आई हूं 

तुम्हारे और मेरे कर्मों के 

आज सारे पन्ने खोल रही हूं 

सुनो ! मैं प्रकृति बोल रही हूं।


तुम्हारी सबसे बड़ी शिकायत 

कि मैं बदलती जा रही हूँ 

मानव हित में ना रही 

तो कान खोलकर सुनो 

सच तो यह है कि आज 

मानव अपने हित में ना रहा 


अपने छोटे-छोटे स्वार्थों के लिए 

मेरा गला घोट दिया 

वजूद क्या मेरा तुम्हारी दुनिया में 

तुम्हारे चित में ना रहा 

ज्ञान नहीं तुम्हें अपने 

अतीत और अस्तित्व का 

फिर कहोगे कि मैं 

तुम में कमीयां टटोल रही हूं 

सुनो ! मैं प्रकृति बोल रही हूं।


जंगल के जंगल साफ कर दिए 

मेरी संतान को मुझसे छीन लिया 

छाती पर खड़े कर दिए कारखाने 

तुमने मुझको इतना जलील किया 

कहते हो तेरी हवा बदली 

सांस भी ढंग से नहीं लेने देती 


इतना क्या गुरूर हो गया 

जहर उगलती चिमनीयां

जब है देन तुम्हारी 

इसमें भी मेरा कसूर हो गया 

गंगा जैसी पवित्र नदी को 


गंदा नाला बना दिया 

और मुझे कह रहे हो कि 

मैं जहर घोल रही रही हूं

सुना ! मैं प्रकृति बोल रही हूं।


कहते हो कभी तेज बरसकर 

सबको डूबा देती हो 

कभी एक बूंद भी नहीं दिखाती

नदियाँ भी सूखा देती हो

तो सुनो! मैं वहीं आती हूं 


जहां पेड़ हो, हरियाली हो

विरानों में मन मेरा भी नहीं लगता

और रही बात डूबाने की 

तो पहले मैं पेड़ों से बतियाती थी

मिलती-जुलती आराम से आती थी 


जब वो ही तुमने ना छोड़े

मैं किसके साथ बातें करुं

बताओ अब में कहाँ ठहरु

पहाड़ों की ढालानों से तो 

तेजी से ही उतरुगी ना

तुम्हारी करतूतों से मैं 

बन मखौल रही हूं।

सुनो ! मैं प्रकृति बोल रही हूं।


ये जो सूरज की तपिश 

ज्वालामुखी का लावा

मेरे सीने में तुम्हारी ही 

दहकाई हुई आग है 

हल्के में मत लेना 


ओमदीप जरा भी इसे 

यह तुम्हारी का आगाज है

अगर जिंदा रहना चाहते हो 

मुझे तुम जिंदा रखो


खुद बचना चाहते हो तो 

मुझे बचा कर रखो 

यह तुम्हारी कारगुजारी है 

जो मैं कर्तव्यों से डोल रही हूं 

सुनो ! मैं प्रकृति बोल रही हूं।


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