न जाने किसकी सोच की उपज हूँ !
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ !
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ
हूँ तो मैं भी एक इंसां नहीं फिर भी
तेरे समज से परे हूँ
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ
मै माँ तुझे भी तो मैने ही जन्म दिया
तुझे संस्कार और जीना सिखया
फिर भी मैं अनपढ़ गवार हूँ
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ
हर बर तुझे प्यार से सहारा मैने
मैं वो तेरी बहन हूँ.
जो तुझसे ज्यादा तुझे जानती हैं
तेरे हर कमयाबी पे आशिष बरसती है
तेरे लिये दुआ और कमयाबी चाहती है
फिरभी नासमझ ही ठहरी मैं
तेरे समझ से परे हूँ
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ...
तेरे घर आंगण की रोशनी हूँ
तेरे हमसफर तेरी ब्यहता पत्नी हूँ मैं
फिरभी मै ना जानती तुझे क्या कमी दिखे मुझमे ..
हर बार ताने और घुंघट की लकीरों में मैं हूँ
फिर भी मै तेरे नश्वरता की कारण कैसे ?
तेरे समझ से परे हूँ
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ
मेरे हर एक पहचान तुझे से ही हो
मेरे हर एक पहचान को तुझे ही सोपा हैं
मेरे होने न होने की कायनात भी दखल ले
फिरभी तुझे ऊससे कोई गिला नही
तेरे समझ से परे हूँ
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ
जखड जो रखे हैं मुझे हर जनम में रिश्तों से
तेरे ऊस डर की पहचान हूँ मैं
परंपरा और संस्कृती के रचिता ओ पुरूष..
मैं वो आग हूँ जो तुझसे बुझ न पाऊ कभी
मैं वो राग हूँ जो तुझसे न जिता जाये कभी
हर बार मुझसे हार
फिरभी तुझे हैं गलतफैमी के हम हैं तेरे ही गुलाम
ना समझ हो जो न समझा हमे
तेरे समझ से परे हूँ
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ
जो तेरे मन मे मै तुझसे कुछ कम हूँ
तेरे पतन कि रेखा हूँ अभागी हूँ.?
जो ऐसा सोचे वो तेरा वहम हूँ..
पर मै मै हूँ
एक स्त्री..
तेरे वजुद की वजह हूँ..
तेरे होनेका एहसास भी मै ही दू
और तू मुझे ही परखे परंपरा की ऐनको से
हर बेडी सिर्फ तेरी सोच हैं
मैं तो ईस संसार से ही परे हूँ..
न जाने किसकी सोच की उपज हूँ
जो इतनी नेकी से तेरी परंपरा को सभाले हुए हूँ।