ना सोच कि .... !
ना सोच कि .... !


ना सोच कि ... !
घिरी आज सावान की वो लडी बरसात है
महक रही इन साँसो मै वो सुगंध बाकी है |
जहां में एक मैं ही नही हर शख़्स परेशान है
सोच पर कर लू हासिले जीत उसी मे उल्झी है|
गहरी हुयी खायी की तरह हर गहरी सास बतियाती है
रुकी हुयी धीमी चाल से राह भी दर्द सहलाती है|
सोच का वह भवरा कही सवाल किये है
बे गुनाह वो कसक दिल मै चूभन दिये जा रही है|
कहा कुछ नही उन निगाह से निगाह कुछ पूछ रही है
बेगाने ना थे वो गिली दामन की छोर पूछ रही है
क्यों सोचू तिणके सा भी मतलब नही रहा जो
क्यों सहू इतना जब सोच पर अमल नही है
बेहिसाब ही सही जिये जा जरा सी ए जिंदगी
ना सोच कि सोच का कोई सिरा नही रहा है
पल भर की एहसास में कई दफन मायने है...
अभी सही तो अभी बुरा ठहरा रही है...