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Juhi Grover

Abstract

4.2  

Juhi Grover

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मुकम्मल ज़िन्दगी का ख़्वाब

मुकम्मल ज़िन्दगी का ख़्वाब

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मुकम्मल ज़िन्दगी का ख़्वाब नहीं कभी पूरा होता है,

एक मंज़िल के मिलते ही दूसरी मंज़िल का कारवाँ जो होता है।


जब भी उड़ने की चाह होती है, पर कतर दिये जाते हैं,

आसमान को छूते ही ज़मीन पर गिरने का डर रहता है।


हर किसी को ज़िन्दगी में मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता,

कारवाँ में चलते चलते कज़ा का आशियाना मिल जाता है।


तकदीर से इस दुनिया में आते ही आसरा मिल जाता है,

तदबीर से भी मुकम्मल ज़िन्दगी का ख़्वाब कहाँ पूरा हो पाता है?


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