मुकम्मल इश्क
मुकम्मल इश्क
ख़ुद को आज फिर मुकम्मल करना चाहती हूँ मैं
तेरे दामन में कुछ इस तरह टूट कर बिखरना चाहती हूँ मैं।।
उस रात की सर्द हवाओं का इंतजार क्यूँ करूँ
जिसमे तुमको पा कर भी ना पा सकी थी मैं।।
याद आज भी है मुझे तेरी गर्म सांसों की छुअन
जो लिख रही थी तेरा नाम मेरे रूह पर बार बार लगातार ।
वो सारे जमाने की रिवायतें बस मेरे लिए थीं क्या?
चलो माना कि तुम सही और मैं गलत ..
पर मुहब्बत तो बराबर की थी,
फिर क्यूँ सारे फैसले कर अकेले चल दिए ..
खैर ..
आज भी उन खुशबुओं को
सांसों में समेट बैठी हूँ ..
और खुद में तेरी मुहब्बत के
उन लम्हों को करके कैद बैठी हूँ।
तो क्यूँ नहीं देते मुझे वो हक कि
हो जाऊं मैं तुम्हारी और तुम मेरे
सुनो
दिल चाहता है कि इश्क मुकम्मल हो
कुछ ऐसा मंजर हो
वही सर्द हवाएं हों और तुम ठहर जाओ
उलझी रहे तेरी मुहब्बत मेरी गेसुओं में
और मैं अपना इश्क छुपाती रहूँ तेरे दामन में ।।