मरीज-ए-इश्क़
मरीज-ए-इश्क़
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इक आजकल अजीब सा कुछ मर्ज़ है हुआ,
जैसे ये तो चुकाना कोई कर्ज़ है हुआ।
जाना पड़ा ही इश्क़ की दार-उल-शिफ़ा में,
बोला हक़ीम दिल का कोई दर्द है हुआ।
यूँ इश्क़ के ये मर्ज़ की तदबीर कीमती,
जो वस्ल-ए-यार का ही इलाज अर्ज़ है हुआ।
रूठा मरीज़-ए-इश्क़ का बीमारदार भी,
रूह-ए-बदन के पर्चे पे नाम दर्ज है हुआ।
ये साँसे तो है चलती सनम की ही ख़ुश्बू से,
अब क्या करें! सनम ही जो खुदगर्ज है हुआ।
'ज़ोया' ना फ़िक्र कर तू यूँ उम्मीद-ओ-बीम की,
इश्क़-ए-तबाही में ही सदा हर्ज है हुआ।
मर्ज़=बीमारी/ दार-उल-शिफ़ा=अस्पताल/ तदबीर=उपाय/ वस्ल=मुलाक़ात/ बीमारदार=परिचारक /उम्मीद-ओ-बीम=आशा-निराशा/ हर्ज=नुकशान
March 12 / Poem11