साँझ ही सवेरा !
साँझ ही सवेरा !
दमकता सूरज डूबता नहीं कभी,
धरा ही मुख मोड़ लेती है !
आशा या निराशा क्या बोना है
अपने ही मन की खेती है !
अभी यह जो साँझ है यहाँ
यही अभी कहीं सवेरा है !
यहाँ जगते चाँद और तारे
वहाँ छटता जाता अंधेरा है !
टूटे हुए पंख सा ख़्वाब हो गया
जो गिरा तो क्या उठ न पाएगा !
कोई बाल मन सी हसरत उठेगी
देखना फूँक मार फिर उड़ाएगा !
हौसला बिखर भी जाए तिनकों सा
मत सोचना कि मिट्टी हो जाएगा !
उम्मीद का पंछी चुन लेगा तिनके
फिर एक नया आशियाँ बनाएगा !!