मृग तृष्णा
मृग तृष्णा
कितनी उम्मीद से
नौ माह माता निहारती,
देखने अपनी ही प्रतिकृति
कितने पलक- पुष्प बिछाती,
कितनी उम्मीद से
एक तात बाट जोहता,
देखने अपना बचपन
कितने सपनो की तस्वीर बनाता,
अपने अरमानो को स्वाहा कर
वो लाल के सपने संजोता,
कितनी बार उम्मीद दम तोड़ती
कई बार तूफ़ाँ से टकराती कश्ती,
एक ना आने वाले कल के
इसी उम्मीद मे जिंदगी गुजर गई,
अपने लाडले के सपने पूरे करने
कब जीवन की शाम ढल गई,
तब आया,
अपनों से उम्मीद का बुढापा
छत भी वही, आंगन भी वही,
मात- तात की ममता भी वही,
बस, लाडला बड़ा हो गया,
जीवन की मृगतृष्णा में
वृद्ध मात- पिता की उम्मीदों ने,
आखिर दम तोड़ दिया....... ।