मन की गिरहें
मन की गिरहें
उदास सा मन
लिए मैं,
अक्सर
भीगे बादलों को
खिड़की से निहारते,
उनसे टपकती बूंदों को
बैठे एक कोने में
चुपचाप खामोशी से,
दूर उड़ते पक्षियों को आतुर
अपने घोसलों की ओर लौटते,
उनका कलरव और मेरे अंतर्मन में
फैले सन्नाटे के बीच
अजीब सा अहसास
जो शब्दों में नहीं बांधा जा सकता,
बस अनकहा सा
आंखों के सामने चुपके से उतरकर
दबे पांव
मेरे आस पास ही कहीं ठहर जाता है,
मन कभी बोझिल तो
कभी उलझा उलझा बस निहारता है,
बूंदों से बनी छोटी -छोटी सी धारियों को
जो बह रही है
निरंतर अपने गंतव्य की ओर,
और मैं ठहरा हूं
अभी भी उसी जगह
जहां से शुरू हुआ था,
मेरा,
मेरे मन से खेल।
