मेरा समाज गिरवी...गवारा नहीं
मेरा समाज गिरवी...गवारा नहीं
समां गिरवी गवारा नहीं,
जहाँ गिरवी गवारा नहीं।
आसमाँ फिरोज़ी ना लगता,
कहीं सुर्ख यह नज़ारा तो नहीं ?
शायद गुस्ताखी है सियासत से दूर...मिट्टी के पास रहना,
यूँ रह-रह कर नज़रियों का फर्क सहना,
अपनी नज़र में माँ सी ज़मीनों की कीमत नहीं,
उनकी नज़र में हमारी कागज़ी जानों की हैसियत नहीं।
बगावत फितरत में नहीं किस्मत में घुली।
वो कबीला खुद में खूबसूरत रहा,
उन पीढ़ियों कि रूह जाने कब फ़िज़ाओं में मिली ?
क़ातिल लगे आदिवासी सीरत भोली,
लगती रही कब से जिनकी कीमत-बोली।
हक़ में आवाज़ अगर उठ जाये...
चलवा दो दूर उस गुमनाम गाँव पर गोली।
ऊँची हैसियत से मेरी गलतियों कि मिसाल दो...
देखो अब बारिश साथ मे तेज़ाब ले आयी,
इसको दोष भी हम पर डाल दो।
दूर है पर गूँगे नहीं,
अपनी पहचान को भटकते कहीं।
हक़ कि जंग तो हम सफ़र सैलाबों में
किनारा करना गवारा नहीं।।
