मेरा कान्हा
मेरा कान्हा
अक्सर कृष्ण रूप देखकर
खो जाती हूँ
खुद के नन्हे से बाल गोपाल के
बचपन में।
छवि पाती हूँ उसमें
फिर कृष्ण की,
फिर से जी लेती हूँ
हर बरस
मेरे लल्ला की अठखेलियों को।
वो तुतलाना
वो ठुमक कर चलना
पायल की मधुर आवाज़
मुँह पर लगी जुठन भी
लगती है माखन सी।
उसकी खनखनाती हँसी में
खो जाती हूँ
न्यौछावर हो बलइयाँ लेती हूँ
उसके हाथों से झाड़ मिट्टी
अपना आँगन संजोती हूँ।
हाँ मैं, जशोदा देवकी बन
हर जन्माष्टमी
अपने बच्चों में
कृष्ण को संजोती हूँ।
जानती हूँ स्वार्थी हूँ मैं
पर छोड़ नहीं पाती लोभ
कृष्ण प्रेम के संवरण का
हर दिन हर बच्चे में
कान्हा को ही संजोती हूँ।।
