बिगड़ जाती है औरतें
बिगड़ जाती है औरतें
निभाती रहती है
धर्म अपना समझ कर वो
जगह बनाने को अपनों के ही दिलों में
दिनभर की खिंचतान के बाद भी
कभी मन के दरवाज़े पर
नहीं मिलती
अपेक्षित चिरपरिचित मुस्कान
निभाती निरन्तर अपना गृहस्थ धर्म
बिना सिकन लिये चेहरे पे
कभी गोल रोटियों में लच्छे बनाकर
ढूंढती फिरती है थोड़ी सी खुशी
कभी किसी छौंक की खुशबू
कर जाती है तरंगित उसे
फिर लग जाती दौगुने उत्साह से
कभी शर्ट की साफ कोलर को देख ही
खुश हो लेती है
फिर किसी छोटी सी बात से
परेशां हो जाती है
सुबह शाम और दोपहर के बीच
काम के बोझ से थकी
रिश्तों के बोझ को सहन न कर
उतार देती है झुंझलाकर
कुछ खुन्नस
बस इतने में ही
बिगड़ जाती है वो औरत
अपनों की नज़रों में।
