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Ratna Kaul Bhardwaj

Abstract

3.3  

Ratna Kaul Bhardwaj

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नदी जब बोली

नदी जब बोली

3 mins
368


ओ नदी रे मेरी प्यारी नदी 

बता तू कहाँ से है चली 

कहाँ तुझे जाना है

क्या तू थकती नहीं कभी 


है कितने तेरे काम बड़े  

और कितने पवित्र तेरे नाम 

हो सुबह या हो शाम 

क्या सिर्फ बहना है तेरा काम 


चल आज मुझे तुम 

अपना अता पता दे दे 

तेरा अस्तित्व है क्या 

कुछ अपने बारे मे बता दे 


ए सुन मेरे बच्चे मैं अपनी

गाथा तुम्हे सुनाती हूँ  

कथा है मेरी मगर लम्भी 

चलो फिर भी तुम्हे सुनाती हूँ 


मैं कौन हूँ कहाँ से हूँ 

कहाँ जाना है मुझे 

मैं एहसास हूँ , भावना हूँ 

चलो समझती हूँ तुझे 


जनम पर्वतों से होता है 

झरनो के रूप में बहती हूँ 

बहुत अड़चने और रुकावटें 

रस्ते में मैं सेहती हूँ 


ठहरना मेरा काम नहीं 

बस चलती ही रहती हूँ 

कभी कंकरों तो कभी चट्टानों पर 

रास्ता अपना बनाती हूँ 


रफ़्तार मेरी कभी धीरे 

तो कभी तेज़ होती रहती है  

पर हर हाल में मैं काम आ सकूँ

निरंतर कोशिश करती हूँ 


वैसे मेरे भिन यह सृष्टि

अधूरी कहलाती है 

मुझसे ही जनजीवन

की लीला पूरी हो जाती है 


यह पर्यावरण मुझसे ही 

संतुलित रहता है 

न जाने कितने काम मनुष्य 

मुझसे ही निपटवाता है 


मैं जहाँ खेतों में बहकर 

हर भोजन का सोत्र बनती हूँ

वहीँ कितने जन जीवन भीतर 

अपने में पालती रहती हूँ 


आधुनिकता में भी मेरा 

हाथ कोई कम नहीं है 

मुझसे ही बिजली उत्पन होती 

भिन मेरे मशीनों में दम नहीं है 


मैं सबकी प्यास बुझाती हूँ 

सुख सुविधा भरपूर देती हूँ 

प्रकृति से छेड़छाड़ होती है जब 

भावनाएं व्यख्त न कर पाती हूँ  


आपदाएं प्रकृति की हैं अपार 

जिसका कारण मनुष्य खुद है 

अपनी आकांक्षाओं की खातिर 

वह खो बैठा सुध बुध है 


मैं सरहदों में बंधी नहीं हूँ 

यह सारी सृष्टि मेरी है

उफान कभी भर्ती हूँ क्योंकि 

इंसान ने नज़रें अपनी फेरी है 


मुझे देवी का रूप देकर 

मेरी पूजा लोगों से कराई है 

पर कचरादान समझकर मेरे 

एहसास को ठेस पोहंचायी है 


ए मनुष्य मैं हमेशा से 

तेरी प्यास बुझाती आई हूँ 

तरह तरह के आनंद 

विभिन्न रूप में देती आयी हूँ 


मेरे भिन सारा जन जीवन 

बिलकुल अधूरा है 

में हूँ तो मनुष्य का हर निश्चय 

होना ज़रूर पूरा है 


मत भूलो मेरे ही कारण 

सृष्टि पर प्राणी ज़िंदा है 

गर मेरे सोत्र दूषित हुए 

वह मनुष्य की ही निंदा है 


मेरी मृत्यु कभी होती नहीं 

मैं ज़िंदा थी, हूँ और ज़िंदा रहूंगी 

मैं प्रकृति से झुड़ी हूँ 

इसीलिए सदा यहीं रहूँगी


एक सीख मुझसे लो बच्चे

जीवन में कभी रुकना नहीं 

जीवन धारा संग तू बहना 

कहीं कभी तू थकना नहीं 


परिसिथतियां कैसी भी आये 

गबरा मत जाना तू कभी 

चिन्तामुख जीवन शैली रखना 

लौहा मानेंगे तेरा सारे तभी 


माँ, नदी , पृथ्वी , सृष्टि या 

प्रकृति , यह ईश्वर के वरदान है 

जो स्वार्थी स्वभाव छोड़ दे प्राणी 

उसी में इस सृष्टि की शान है 


ऐसा दिन भी आ सकता है 

प्रकृति में हाहाकार मच जायेगा 

सूख जायेगा जब मेरा नीर 

तो मनुष्य कैसे बच पायेगा 


कोई विकराल रूप धरती पर 

कभी आने न देना 

इच्छाओं पर नियंत्रण रखना 

सृष्टि तेरी है इसको मरने न देना 


मेरा क्या मैं सदा बहती रहूँगी 

वह सागर मेरी मंज़िल है 

मुझे और दूषित मन करना 

मानवता अभी बहुत बोझिल है 


मैं तुम्हारी माँ जैसी हूँ  

उससे मेरी तुलना करना 

जिसने साँसे बख्शी तुझको 

और सिखाया है चलना 


जो हर बच्चा मेरा ध्यान रखे

और मेरा नीर सदा साफ़ रखें 

तो मेरे कल कल करते पानी से  

हर तरफ हरियाली ही हरियाली दिखे। 


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