रामायण ५२ नरान्तक की कथा
रामायण ५२ नरान्तक की कथा
उसी समय एक मंत्री आया
सिन्दूरनाद नाम था उसका
बूढ़ा, ज्ञानी चतुर बहुत था
रहता था विभीषण के साथ सदा।
कभी ना गया रावण की सभा में
रावण को वो समझाने लगा
जब रावण किसी तरह ना माना
मन में विचार उसके आने लगा।
रावण में अज्ञान भरा है
ऐसा कोई करूँ उपाय
जड़ समेत नाश करूँ इसका
इसके कुल में कोई रह न जाये।
बोला रावण से, क्यों दुखी तुम
अभी बहुत पुत्र लड़ने को तेरे
रावण कहे, लड़ने वाला
कौन रहा अब वंश में मेरे।
मंत्री बोला, नरान्तक एक पुत्र
गंडमूल में पैदा हुआ था
मरा नहीं है वो जिन्दा है
जिसको तूने बहा दिया था।
शिवजी की कृपा से उसने
विहवाबल का राज्य पाया
बहत्तर करोड़ राक्षस वहां पर
सब हैं बलि और करते माया।
कहें, बुलाओ दूत भेज कर
रावण मुख पर प्रसन्नता आई
धूमकेतु को था बुलाया
हाथ में एक चिट्ठी पकड़ाई।
असल में बहत्तर करोड़ निसाचर
एक ही दिन में जन्में सारे
रावण के पुर में पैदा हुए वो
आये वहां गुरु शुक्राचार्य।
बोले पैदा हुए सब मूल में
जब ये देखें पिता के मुख को
नाशक हों ये अपने कुल के
मेरी मानो, रखो न इनको।
समुन्द्र को सौंप दें इनको
निर्णय लिया सबने ये मिलकर
पर वो सारे बच गए थे
अटक गए थे एक बरगद पर।
बरगद का ही दूध थे पीते
सात वर्ष तक वहीँ रहे वो
फिर वो सारे गए थे जहाँ
समुन्द्र मिलता गंगा जी को।
एक शिवजी का मंदिर था वहां
वहां पर सभी शीश नवायें वो
अपनी उत्पति का रहस्य जानने
शुक्राचार्य के पास आएं वो।
गुरु ने सब वृतांत सुनाया
समझाया,उनको ज्ञान दिया था
वो सभी वहीँ रहने लगे
हजारों वर्ष वहां तप किया था।
ब्रह्मा जी तब आये वहां पर
कहें नरान्तक, तुम मांगो वर
कोई जीत सके न मुझको
नरान्तक ने कहा ये सुनकर।
दूसरा कोई मार सके न
पर सुग्रीव पुत्र तुम्हारा गुरु भाई
उससे तुम बचकर ही रहना
ना करना उससे लड़ाई।
बाकी राक्षसों को भी वहां पर
वर दिया जब ब्रह्मा आये
छोड़ वानर और रीछ जातियां
तुम्हे कोई हरा न पाए।
वो सब फिर तप करने लगे
शिव पार्वती नाम जपें वो
शिव, शिवा के साथ प्रकट हुए
बोलें वर दूँ तुम मांगो जो।
नरान्तक बोला ऐसा ऐश्वर्य हो
कोई भेद ना प्रजा में मुझमें
ऐश्वर्य सबका बराबर हो
नगर बसे बिना परिश्रम के।
शिवजी ने वर दे दिया उसको
बिहवाबल नगर बसाया
नगर वह बहुत सूंदर था
एक दिन दधिबल वानर वहां आया।
एक साल वो पढ़ा वहांपर
निशाचरों के संग रहता था वो
एक दिन गुरु ने शाप दिया उसे
मारेगा तू गुरु भाई को।
चला गया दुखी हो वहां से
मिले रास्ते में नारद जी
असल में वो सुग्रीव का बेटा
शाप की बात नारद को कह दी।
दिया ज्ञान था नारद उसको
भजो राम को तुम रहो जहाँ
चला गया वो बीच समुन्द्र
रहने लगा एक पर्वत पर वहां।
बिंदु नाम का एक राक्षस
एक बार इंद्र से युद्ध करे
युद्ध के बाद अकेला बचा वो
बाकी राक्षस सब युद्ध में मरे।
सोचा उसने अब मित्र ढूँढूँ
जो बहुत शक्तिशाली हो
बिन्दुमती और सब कन्याओं को
व्याह दिया उसने नरान्तक को।
रावण का दूत पहुंचा नगर में
देखा, संपन्न दास दासी भी
बहत्तर हजार राक्षस वहां पर
शकल वहां पर सभी की एक सी।
रावण की चिट्ठी दी नरान्तक को
फिर सारी थी कथा सुनाई
नरान्तक कहे बिन्दुमती से
पिता पर विपत्ति है आई।
बिन्दुमती कहे राम ईश्वर हैं
उनसे तुम न करो लड़ाई
स्त्री की बात अच्छी न लगी उसे
चतुरंगिणी सेना बुलाई।
बिन्दुमती भी साथ में चल दी
जल्दी लंका पहुँच गए वो
राम कहें ये मेघ आ रहे
विभीषण कहें नरान्तक है वो।
हंसे राम, हनुमान उन्हें देखें
उठे, गरज के चले वहां पर
युद्ध हुआ भारी दोनों में
दोनों ही रहे डटे वहां पर।
अंगद भी तब वहां आ गए
घोर युद्ध वो भी करें वहीँ
इतने में सूरज था ढल गया
दोनों सेना वापिस आ गयीं।
नरान्तक रावण पास था आया
रावण कथा सुनाये उसको
क्रोध में बोला, दोनों भाई
कल सुबह लाऊं मैं उनको।
बिन्दुमती मंदोदरी पास गयीं
वो सुनाएं उसे राम यश
रावण को भी वो समझाए
पर वो तो था काल के वश।
सुबह युद्ध शुरू हुआ फिर से
नरान्तक वानरों को करे व्याकुल
राम भेजें लक्ष्मण को वहां
वो संहार करें राक्षस कुल।
नरान्तक की आधी सेना मरी
राम के पास तब पहुंचा था वो
जाम्ब्बान ने पकड़ लिया और
गाड़ दिया बालू में उसको।
फिर सोचा मेरे मारे ना मरे
फेंका लंका में, घूँसा मारा
अनुष्ठान किया आसुरी यज्ञ का
फिर वो राम के पास पधारा।
विभीषण वृतांत सुनाया राम को
तभी वहां आ गए नारद जी
कहें, दधिबल पुत्र सुग्रीव का
ले आओ तुम उसे आज ही।
हनुमान चल पड़े थे लेने
धवलगिरि पर पहुँच गए वो
रामचंद्र के वचन सुनाकर
दधिबल को थे ले आये वो।
सुग्रीव ने पुत्र को देखा तो
प्रसन्नता उनके मन में छाई
नरान्तक को देखा दधिबल ने
कहें, ये तो मेरा गुरु भाई।
एक दूजे को देख के दोनों
मन में दोनों के प्रेम था छाया
मिले थे बरसों के बाद वो
अपना अपना हाल सुनाया।
दधिबल नरान्तक को समझाए
अज्ञान छोड़ भजो राम को
नरान्तक बोले, डरपोक सब वानर
जानूं मैं तुम्हारे सवभाव को।
दौड़ा जब वो राम की तरफ
दधिबल पूंछ में उसे लपेटा
दोनों बराबर के बलि हैं
न बड़ा कोई, न कोई छोटा।
पटक के मार दिया नरान्तक को
उसने किया था नाद भयंकर
शीश उसका फिर दिया राम को
राम कृपा की उसके ऊपर।
बिहवाबलपुर का राज्य दे दिया
साथ में अपनी भक्ति भी दी
उधर राक्षस नरान्तक की देह
रावण के पास जाकर् गिरी थी।
हाय नरान्तक कहकर गिर पड़ा
बिन्दुमती भी वहां पर आई
मंदोदरी ने उसे समझाया
राम से सर वो मांग के लाई।
चिता बनाकर नरान्तक की
अग्नि उसमे थी जलाई
नरान्तक और बिन्दुमती ने
स्वर्ग की गति थी पाई।